Nauushad Muntazir

Ghazal : Zaalim Hai Jo Zamana
Poet : #NauushadMuntazir
Reciter : #NauushadMuntazir

ज़ालिम है जो ज़माना उसकी ठोकरों से हो कर गुज़रा हूँ;
तरकश धारदार तीर हूँ जो बेनूर नज़रों से हो कर गुज़रा हूँ।

धार जो मैंने सितमगर वक़्त की अंगीठी में रहकर पाई है;
मैं उस भीड़ का सफ़ेद सच हूँ जो हज़ारों से हो कर गुज़रा हूँ।

दिख ही जाते हैं अधूरी नींदों में मुक़म्मल ख़्वाब अक्सर;
मैं वो मरहम हूँ जो पीठ के खंजरों से हो कर ग़ुज़रा हूँ।

कहां मिटा पाई है चंद बेबस रक़ीबों की कालिख मुझको;
मैं वो उजाला हूँ जो रात के अंधेरों से हो कर ग़ुज़रा हूँ।

वो नादां “मुन्तज़िर” हैं मेरे फना हो जाने की आर्ज़ू लेकर;
मैं वो अरमां हूँ जो दोस्तों की दुआओं से हो कर ग़ुज़रा हूं।

-नौशाद मुन्तज़िर/نوشاد منتظر ®
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